गुरुवार, 27 अगस्त 2015

जब तक तोड़ेंगे नहीं तब तक छोड़ेंगे नहीं



फौलादी इरादों के बल पर पहाड़ का सीना चीरकर रास्ता बना दिया...तब जाकर कहलाए मांझी द माउंटेन मैन।

पर्वत तोड़ने के बाद दशरथ मांझी का नाम इतिहास में इस कदर दर्ज हुआ कि फिल्मकार केतन मेहता ने आखिरकार उनपर फिल्म भी बनाने के अपने इरादे को आखिरकार पूरा कर दिखाया।

उधर शाहजहां ने मुमताज बेगम के प्रेम में ताजमहन बनवा दिया..तो इधर दशरथ मांझी अपनी पत्नी फगुनिया के प्रेम में इस कदर डूबे कि पहाड़ काटकर रास्त बना दिया।

बचपन में जब हम बच्चे थे तब दिमाग में एक बात बैठ गई थी कि जो गोरे होते हैं वे ठाकुर होते हैं और जो काले होते हैं वे मुसहर होते हैं। बड़े होने पर ये बातें काफी हद तक गलत साबित होते हुए देखी।

फिल्म में यदि नवाजुद्दीन सिद्दकी दशरथ मांझी का रोल नहीं करते तो कोई भी अभिनेता इस किरदार पर सटीक नहीं बैठ पाता। कोई और अभिनेता काम करता तो शायद मेकअप आर्टिस्ट को दशरथ का ढांचा तैयार करने में काफी मशक्कत करनी पड़ती। गांव की बोली- भाषा, हाव-भाव सहित दशरथ मांझी के चरित्र को नवाजुद्दीन ने जिस तरह से निभाया है। वह फिल्म के साथ पूरी तरह से न्याय करने के बराबर है।

हां, राधिका आप्टे से थोड़ी शिकायत है...उन्होंने फगुनिया के किरदार में खुद को ढालने का प्रयास भर किया है..लेकिन कहीं न कहीं खटकती हैं..चाहे वो बोली और भाषा का टोन हो चाहे हाव भाव। गांव की गोरी का रोल करने के प्रयास में कहीं न कहीं शहरीपन की महक आती है उनके किरदार से।

फिल्म देखने का सबका अपना नजरिया होता है। एक दर्शक के रूप में कोई कहानी पर फोकस करता है तो कोई पिक्चराइजेशन पर।

फिल्म के बारे में मेरा अपना भी एक विचार है। इसे मैंने एक फिल्म समीक्षक के सामने रखा-
मैं- सर, हम दशरथ मांझी को इसलिए जानते हैं कि पानी लाने में कठिनाई और पत्नी की पहाड़ से गिरकर हुई मौत के कारण उन्होंने पहाड़ काटने की ठानी...
फिल्म के बीच में अचानक से एक दृश्य दिखाई देता है जिसमें उनकी पत्नी पानी भरके लौटती है और थोड़ी ही देर में गिरकर मर जाती है...इस सीन को बहुत ही थोड़े और जल्दबाजी में दिखाया गया है...पत्नी के मरने से पहले और तब तक पानी भरने का सिर्फ एक ही सीन है फिल्म में जबकी कुछ अन्य दृश्यों को बार-बार दोहराया गया है।

समीक्षक- जो घटनाएं 22 बरस में हुई उन्हें दो सवा दो घंटे में दिखाना है। अतः स्वभाविक है कि चीजों को सांकेतिक रूप से दिखाते हुए समेटने की जरूरत थी।

मैं- दशरथ मांझी और फगुनिया का कोई कंबिनेशन ही नहीं...मुसहर बस्ती की औरतें इतनी चिकनी और स्ट्रेट बालों वाली नहीं होती।

समीक्षक- आपत्ति सही है मगर फिल्म आपको दर्शकों को दिखानी है। जो छूट ली गई है, उसे सिनेमैटिक लिबर्टी कहते हैं

मैं- हां समय की पाबंदी है...लेकिन पानी भरने का एक सीन फगुनिया के ससुराल जाने पर भी दिखाया जा सकता था...वो जरूरी था क्योंकि यही कहानी की थीम थी...मरने के वक्त ही पानी वाला सीन।
फगुनिया मांझी और उनके दोनों बच्चे...कम से कम एक बच्चा फगुनिया जैसा सुंदर होना चाहिए था
मांझी के समय पत्नी अपने पति का नाम नहीं लिया करती थीफिल्म में फगुनिया अपने पति को दशरथ कहकर बुलाती है

समीक्षक- बात सही है. फिर भी याद रखें की यह सिनेमा है. नए जमाने का

मैं- कहानी तो पुरानी है। फिर गांव के बजाए शहर दिखाना बनता था। नए जमाने के सिनेमा में कोई मुंह पर गोबर तो नहीं मारता ना।

समीक्षक- आपने अपने विचारों के लिए स्वतंत्र हैं। इन्हें फेसबुक पर लिखिए

मैं- दशरथ के बुढ़ापे वाले सीन में इतना मेकअप किया गया है कि समझ में नहीं आता कि चेहरा पसीना से चमक रहा है या वे और जवान हो रहे हैं..अलग ही शाइनिंग दिखती हैएक बात और मुसहर घर की औरतें गरीबी के कारण भले ही फटे चिथड़े कपड़े पहनें लेकिन बिना ब्लाउज के नहीं रहतीं...मांझी के समय में भी ऐसे नहीं रहती थीं..लेकिन फिल्म में फगुनिया को बिना ब्लाउज के दिखाया गया है..किसी धार्मिक फिल्म के पात्र की तरह।


-------फिर कोई जवाब नहीं आया।


हालांकि यह हम जानते हैं कि फिल्मों को हूबहू फिल्माने से ना तो वह फिल्म की तरह दिखेगी ना ही दर्शकों का मनोरंजन हो पाएगा। लेकिन फिल्म में इन छोटी-छोटी गलतियों को नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता। अगर बायोपिक बन रही है तो उसमें थोड़ा बहुत परिवर्तन किया जा सकता है...लेकिन माडर्न जमाने के सिनेमा के नाम पर बुढापे में जवान नहीं दिखाया जा सकता।

शनिवार, 22 अगस्त 2015

चलो स्कूल-स्कूल खेलें

हम अपने बचपन में बड़े मूढ़ टाइप के थे...घरवाले कुछ कहते तो जल्दी समझ में ही नहीं आता कि कौन सा काम करने के लिए कहा जा रहा है।

लेकिन आजकल के छोटे बच्चों की उम्र में एक बड़ी उम्र छिपी होती है...सीखने की शक्ति इतनी तीव्र होती है कि बस आप आंखें फाड़ कर देख ही सकते हैं...

मोबाइल हो या कंप्यूटर का कीबोर्ड...बच्चों की अंगुलियां ऐसे चलती हैं कि बड़े देखकर अपने ऊपर ही तंज कसने लगे।

मेरे मकान मालकिन की चार साल की बेटी इस बरस से स्कूल जाने लगी है। जो कुछ स्कूल में देखती-सीखती है घर आकर अपने दो साल के भाई को खेल-खेल में सब बताती और सीखाती है।

कल दोपहर नीम के पेड़ के नीचे दोनों खेल रहे थे। लड़की अपने भाई से बोली चलो अब स्कूल-स्कूल खेलते हैं।
उसका भाई घर में से कुछ अखबार और कापियां उठा लाया।
खेल शुरू हुआ...दोनों ने कापी पर हाथ पैर मुंह नाक आंख वाला कोई आदमी या जानवर बनाया फिर उसमें रंग भरने लगे।

लड़की उठी और अपना दांया हाथ आगे कर अपने भाई से बोली, 'मे आइ गो टू टॉयलेट मैम'?

उसका दो साल का भाई बोला- जाओ...अरे जाओ...जल्दी जाओ...
चड्ढी में ही टॉयलेट कर दोगी तो मम्मी आएगी और तुम्हें डंडे से मारेगी..खूब मारेगी।

बहन बोली- अरे पगलू हम लोग तो स्कूल-स्कूल खेल रहे हैं... स्कूल में जब टॉयलेट लगती है तो मैम से ऐसे ही पूछना पड़ता है।

 

मंगलवार, 7 जुलाई 2015

मैं..मेंढक..कमरा..टर्र टर्र



क्योटो में तेज बारिश हो रही है और सारे मेंढक फुदक-फुदक कर मेरे कमरे में आ रहे हैं। पहले एक आया फिर तीन फिर एक.. और फिर आने का सिलसिला शुरू ही हो गया। मानो इनके लिए कमरे में निःशुल्क जलपान की व्यवस्था की गई हो। 
 
लगता है आज मेंढकों के पदार्पण से मेरे कमरे में महफिल जमेगी। सभी टर्र..टर्र..टर्र करेंगे और मैं कहूंगी यार ये पुराना हो गया अब इसका रीमिक्स सुनाओ, हिमेश रेशमिया टाइप।
मैं पालथी मारकर अपने बेड पर आराम से बैठी हूं और गिन रही हूं कि कुल कितने मेंढकों ने मेरे कमरे में प्रवेश लिया। मेंढक सिर्फ देखने में ही अच्छे लगते हैं। गलती से भी छू जाने पर लगता है इनके अंतड़ियों तक अपन की उंगली पहुंच गई।

हां..तो मैं बैठकर मेंढ़कों की संख्या गिन रही हूं..ताकि इन्हें कमरे से भगाने में आसानी रहे। लेकिन ये तो लगातार चले ही आ रहे हैं...गजब की लाइन लगी है..सभी टर्र टर्र कर रहे हैं..जैसे मनरेगा का मानदेय थोड़े ही देर में ही मिलने वाला हो...अब पेन-कॉपी लेकर बैठना पड़ेगा..संख्या कुछ ज्यादा ही हो रही है।

मैंने बैठे-बैठे सभी मेंढकों को बेड के नीचे जाते देखा..लेकिन बेड के नीचे गर्दन लटकाकर देखा तो एक भी मेंढक नहीं...सब के सब गायब। मैंने हाथ में झाड़ू लिया और ये बोलते हुए कि किधर छुप गए बे सब के सब (यह जाने बगैर की इसमें कुछ फीमेल भी होंगी)। लेकिन चूं तक की आवाज नहीं आई..ओह..सॉरी टर्र तक की आवाज नहीं आई। मैं झाड़ू लेकर कमर पर हाथ रखकर खड़ी रही..तभी एक मेंढक निकला। मैंने ध्यान से देखा..और उधर बढ़ी। हाय रे..कलमुहे सारे के सारे कुकर में बैठे थे। दो जने कटोरी में बैठे थे। एक बेलन के ऊपर बैठा था..मानो कूदकर सुसाइड करने वाला हो।

मैंने सारे मेंढकों को झाड़ू मारकर भगाया...गिन गिन कर भगाया...सभी टर्र टर्र करते हुए कमरे से निकल गए..बिना रीमिक्स सुनाए ही..अब तक बारिश भी बंद हो गई।

रविवार, 3 मई 2015

गाय का बच्चा और प्रतिस्पर्धा..

कल भरी दोपहरी में प्याज खरीदने के लिए मैं घर के पीछे वाली दूकान पर जा रही थी। रास्ते में एक गाय का बछड़ा अपनी मां के साथ कहीं जा रहा था। वे दोनों बहुत ही धीरे-धीरे चल रहे थे...उस दौरान मैं दोनों के पीछे थी। लेकिन थोड़ी ही देर बाद मैं दोनों से आगे निकल गई। यह देख गाय का बछड़ा अपनी मां को छोड़कर तेजी से कदम बढ़ाते हुए मुझसे आगे निकल गया। अगर वह इंसानी भाषा बोल रहा होता तो  हंसते हुए मुझसे जरूर कहता...देखा कैसे मैं तुमसे आगे निकल गया...
लेकिन मुझे पता है वह अपनी मां से जरूर बोला होगा...इतनी कड़ी धूप में जरा जल्दी-जल्दी पांंव बढ़ाया करो। पीछे चलने वाले भी हम लोगों से आगे निकल जाते हैं।


बहरहाल, मुझे उस वक्त बड़ा मजा आता..जब गाय का बछड़ा तुनकते हुए मुझसे आगे निकल रहा था..बछड़े के मन में शायद यही भाव रहा होगा कि अगर वह आगे निकला और जीत गया तो  इनाम के रूप में एक पेंसिल और रूलदार कॉपी का हकदार जरूर होगा। आखिर उसकी उम्र भी तो थी बच्चों वाली ही।

बुधवार, 25 मार्च 2015

कुकर की सीटी से उसे डर लागो



सब्जी पककर तैयार थी। प्रेशर कुकर खोलते ही दोनों बच्चे उसमें ऐसे झांके मानो कुएं में गिरा मेंढक देख रहे हों। शहर में रहते हुए भी प्रेशर कुकर उन दोनों के लिए नई चीज है। जब भी कुकर की सीटी बजती है वो दोनों उछलने लगते हैं..खुशी से नहीं डर से।

प्रेशर कुकर तो उसके घर में भी है..वही यूनाइटेड..जो उसकी मम्मी को उसकी नानी ने दिया था। दाल गलाने के लिए। लेकिन उसकी मां उसमे दाल नहीं पकाती। हां..छोटा बच्चा कुकर के ढक्कन को लेकर जरूर पूरे दिन घर में घूमता रहता है..मानो सबसे यह कह रहा हो कि देखो कुकर का कैसे दुरूपयोग किया जा रहा है।

अमूमन घर में उपयोग होने वाले चीजों की बच्चों को  ऐसी आदत लग जाती है कि उन्हें उनकी किसी भी तरह की आवाज से डर नहीं लगता। चाहे वो मिक्सर चलाया जाए..चाहे कूलर..या फिर कुकर की सीटी ही क्यों न हो।

एक दिन मैंने उसकी मां से पूछा कि वह प्रेशर कुकर में खाना क्यों नहीं बनाती हैं
उन्होंने अपने चेहरे पर सिर दर्द जैसा भाव लाते हुए कहा..कुकर में खाना बनाने में बड़ा झमेला है। पहले तो बैठ के गिनते रहो कितनी सीटियां आई..खाना पका कि नहीं पका। सबसे बड़ी मुसीबत है कुकर को मांजने में। 

पहले कुकर मांजो..फिर उसका ढक्कन मांजो...फिर उसका रबर मांजो..फिर उसकी सीटी मांजो। उन्होंने ऐसे बोला मानो अपनी बातों से मेरा दिमाग मांज दिया हो कि मुझे ये सवाल नहीं पूछना चाहिए।

बच्चे की नानी के घर से प्रेशर कुकर जरूर आया है...लेकिन वो खाली नहीं..बल्कि भर-भर कर आलस भरकर आया है..जो बच्चे की मां में समा गया है...वह दो घंटे में बटलोई में दाल पकाती है..लेकिन कुकर को सहेज कर रखी है..शायद इस उम्मीद में कि सारनाथ से एक दिन म्यूजियम वाले आएंगे और उसके कुकर को उठा कर ले जाएंगे।

सोमवार, 23 मार्च 2015

लड़ाई ‘लाइव’



रात का समय है। मुझे नींद नहीं आ रही है। इस समय रात के बारह बजकर तीस मिनट हो रहे हैं। मैं अपने कमरे मे बैठकर दो छिपकलियों की लड़ाई लाइव देख रही हूं। टीवी पर नहीं। ठीक मेरे आंखों के सामने दो छिपकलियां लड़े जा रही हैं...जैसे पड़ोस की शर्माइन और मिश्राइन आंटी लड़ती हैं। इन छिपकलियों की लड़ाई उनसे कमतर नहीं है। 

कल मैंने पेप्सी पीकर खाली बॉटल अपने कमरे के एक कोने में लुढका दी। और ठीक अभी-अभी की बात है..दो छिपकलियां बॉटल के ऊपर बैठने के लिए आपस में एक दूसरे से भिंड रही हैं। उस बॉटल की चौड़ाई इतनी ज्यादा है नहीं कि दोनों एक साथ बैठ सकें। शायद पहले मैं पहले मैं वाली बात को लेकर दोनों लड़ रही हैं। दीवार के ऊपर शंकर भगवान का एक कैलेंडर टंगा है। इसको ओजस आर्ट वालों ने बनाया है। देखने में ऐसा मानो भगवान शंकर छिपकली टाइप किसी चीज से ढके हों। लेकिन ये फोटो वैसी नहीं है जैसी बाजारों में मिलती है..ये फोटो ऐसी है जो बाजारों में शायद अब मिलने लगे। 

हां..तो कैलेंडर का जिक्र करने का मतलब ये था कि एक छिपकली जो कुछ अबला टाइप की है..वह थक हारकर शंकर भगवान के फोटो के पास जाकर बैठी है। जैसे यह कह रही हो कि आज तो सोमवार है...मैंने व्रत काहे लिए रखा...आपने मेरी बॉटल पर बैठने तक की मनोकामना पूरी नहीं की।
जिस समय मैं छिपकलियों के बारे में लिख रही हूं..कैलेंडर के पास बैठी छिपकली दूसरे दीवार की तरफ जा रही है। देखना यह है कि वह दीवार का भ्रमण करती है या फिर बॉटल पर बैठने की पुरजोर कोशिश करती है।

अरे ये क्या....

ये तो दीवार पर टंगे शीशे पर जाकर चिपक गई। शीशे में अपना चेहरा देख रही है क्या। वैसे कहा जाता है कि आधी रात को शीशे में अपना चेहरा नहीं देखना चाहिए। लेकिन इसको क्या फर्क पड़ने वाला..ये तो छिपकली है।
वैसे एक और बात कही जाती है.........कि नींद ना आए तो कुछ पढ़ना या लिखना चाहिए...उससे तो नींद आ ही जाती है....
अब क्या कहूं...सच में...अब तो जोर की नींद आ रही है। इन लोगों की लड़ाई भी खत्म हो गई। एक छिपकली बॉटल पर तो दूसरी शीशे पर बैठी है। और मैं...मैं अपने बेड पर बैठी तो हूं...लेकिन अब लुढकने जा रही हूं।
शुभ रात