गुरुवार, 29 मई 2014

जाने कहां गए वो दिन!!


बचपन में गर्मी की दोपहरिया कुछ और ही होती थी। मां दोपहर में हमें अपने साथ लेकर सोती थी। मां के सोते ही हम धीरे से पैर दबाए निकल आते औऱ घर के बाहर खेलने लगते। शोरगुल की आवाज सुनकर मां गुस्से में आतीं और हमें पीटते हुए ठिठिराकर सोने के लिए ले जाती । जब हम सुबक-सुबक कर रो रहे होते तो मां कहती- दोपहर में बहरुपिया आता है, बच्चों को अकेला देखकर उन्हें अपने झोली में भरकर ले जाता है। हम डर जाते और बहरुपिया का चेहरा हमारे आंखों के सामने नाचने लगता। कभी-कभी तो ऐसा होता कि कोई डोरबेल बजाता तो हम डर के मारे दरवाजा नहीं खोलते कि क्या पता गेट पर बहरुपिया हो और दरवाजा खोलते ही हमें अपनी झोली में भरकर ले जाए।
 
घर के सारे लोग दोपहर में सोया करते थे लेकिन हम बच्चों को नींद नहीं आती थी। पड़ोस के अपने एक दो साथियों को बुलाकर हम घर के बरामदे में बोरी बिछाकर प्लास्टिक का घर बनाते, दुकान लगाते औऱ हरी घास को सब्जी बनाकर बेचते। हम सोचते जब बेचना ही है तो क्यों न पानी को तेल बनाकर बेंचा जाय। हम किचन से जैसे ही छोटी वाली गिलास में पानी लेकर निकल रहे होते ना जाने क्यों गिलास हाथ से छूट जाती और मम्मी आकर ताबड़तोड़ पिटईया कर देती। फिर हम रोते हुए ही गुस्से में अपना प्लास्टिक का बनाया घर तोड़ देते, दुकान उजाड़ देते औऱ अपने दोस्तों को कहते कि घर जाओः आज का खेला यहीं खत्म।

मन नहीं मानता था आइसक्रीम खाए बिना। दोपहर से शाम तक गली में आइसक्रीम वाले आते रहते थे। सब अलग-अलग ढंग की आइसक्रीम बेचते । आइसक्रीम वालों से कई बार मां की लड़ाई हुई थी। मां हमें बार-बार आइसक्रीम नहीं खाने देती थीं और आइसक्रीम वाला जब गली में आता तब घर के सामने खड़े होकर टन टन् टन टन देर तक बजाता रहता जैसे हम उससे थोक के भाव से आइसक्रीम खरीदने वाले हों।

पैसा तो हमारे पास भी रहता था लेकिन गुल्लक में। मां जब आइसक्रीम के लिए पैसे नहीं देती तो हम सोच में पड़ जाते कि अगर अपने गुल्लक से पैसा निकालते हैं तो हमारा एक रुपिया कम हो जाएगा। दोपहर में जब सब कोई सो गया तब हम गुल्लक से पैसा निकालने की कोशिश कर रहे थे। गुल्लक से एक रुपए निकालने में भी समय लगता है जैसे गुल्लक से नहीं बैंक से निकाल रहे हों। पैसा गुल्लक के मुंह पर आकर अटक गया निकल नहीं रहा था। हम गुल्लक को तेजी से हिला रहे थे। खटर-पटर की आवाज सुनकर मम्मी आयीं और पीटने लगीं कि उठकर दबे पांव कैसे भाग आयी है औऱ गुल्लक से पैसे निकालने की कोशिश में खटर-पटर मचायी है। एक बार फिर से हम पीट जाते औऱ अपना गुल्लक उठाकर जमीन पर पटक देते । गुल्लक से सारे पैसे ऐसे गिरते जैसे आज धनतेरस हो और लक्ष्मी हमारे घर में साक्षात धन की वर्षा कर रहीं हों। मेरा भाई सारा पैसा बीनकर रख लेता औऱ हम उसे आंख दिखाते हुए मम्मी के साथ सोने चले जाते। जब हम रुलाई बंद करने वाले होते औऱ टूटी-फूटी सिसकियां ले रहे होते तब मां धीरे से कहती कि बच्चों को रोज आइसक्रीम नहीं खाना चाहिए। आइसक्रीम वाले उसमें रंग मिलाकर बेचते हैं जिससे कि तुम लोग होली खेलते हो..औऱ हम मां कि बातें सुनते हुए..सिसकते हुए जाने कब नींद की आगोश में आ जाते।

मंगलवार, 27 मई 2014

कैसे भी..रास्ते तो निकलते ही हैं!!


आठ-दस साल पहले गांवों में मोबाइल का चलन बहुत कम था। गिने-चुने हुए लोगों के पास बीएसएनएल की सिम लगी हुई नोकिया का मोबाइल फोन था। गांव से साइकिल चलाकर 15 किलोमीटर की दूरी तय करके पढ़ाई करने वाली परास्नातक की एक लड़की काव्या को उसके एक दोस्त ने नोकिया की मोबाइल भेंट की। काव्या उस मोबाइल से सबसे पहले मैसेज भेजना सीखी, और डायरी में लिखी शेरो-शायरी मोबाइल से टाइप कर दोस्तों के नंबर पर भेजती।

 कुछ दिनों बाद उसके फोन से मैसेज जाना बंद हो गया। अब उसकी समझ में नहीं आया कि इसके लिए वह क्या करे। दोस्त से पूछने पर उसने बताया कि कस्टमर केयर में फोन करके समस्या का समाधान पाया जा सकता है।

 उस वक्त रात के बारह बज रहे थे जब कस्टमर केयर में काव्या ने फोन लगाया। उधर बात हुई औऱ समस्या का समाधान भी सुलझा दिया गया लेकिन कस्टमर केयर से बात करने वाले लड़के ने काव्या का फोन नंबर रख लिया और अगले दिन उसे अपने पर्सनल नंबर से फोन किया।

 दोनों बाते करने लगे। धीरे-धीरे बातें बढ़ने लगी औऱ दोनो को एक दूसरे से प्यार हो गया। बात करते हुए छः महिने बीत गए तब दोनो ने डिसाइड किया कि उनको मिलना चाहिए अगर वे एक दूसरे को पसंद आ गए तो घर वालों से बात करके शादी कर ली जाएगी।

हफ्ते भर के अंदर वह लड़का काव्या के शहर आया। दोनो मिले एक दूसरे को पसंद किए और लड़का वापस चला गया। पंद्रह दिन बाद लड़का अपनी मां औऱ बहन के साथ पुनः आया और काव्या से सगाई करके चला गया।
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फ्लैश बैक-

काव्या एक गरीब परिवार से थी। बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर अपनी परास्नातक की पढ़ाई पूरी कर रही थी। उसके पिता को उसकी शादी की चिन्ता खाए जा रही थी। उसके लिए उन्होंने कई लड़के भी देखे थे लेकिन मोटे दहेज की मांग से उनके हाथ तंग थे। उन्होंने निश्चय किया कि वे अपनी आधी जमीन बेंचकर बेटी का ब्याह करेंगे लेकिन जमीन की बोली लगाने वालों को यह पता चल गया कि किस कारण से जमीन बेची जा रही है । इसका फायदा उठाते हुए खरीददारों ने जमीन की कम कीमत लगाई। ठीक दाम न मिलने के कारण जमीन ना बिक सकी और बेटी का ब्याह रूका रह गया। बेटी की ब्याह की चिंता में डूबे पिता को सारा रात नींद नहीं आती थी।
काव्या के कुछ दोस्त अच्छे थे वे उसे कापी-किताब अपने ही पैसे से खरीद कर दे देते थे और उस दिन उसके एक दोस्त ने उसे मोबाइल फोन भी खरीद कर दे दिया जिसकी जरूरत काव्या को न के बराबर थी।

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सगाई के बाद काव्या ने उस लड़के की चर्चा घर में की। इस बात को सुनते ही उसके पिता बहुत नाराज हुए। लड़का दिल्ली का रहने वाला था। एक गरीब बाप एक अनजान दिल्ली के लड़के से अपनी बेटी की शादी कैसे कर सकता था। पिता को सबसे ज्यादा फिक्र लड़के की बिरादरी को लेकर हुई।

 पिता के कहने पर एक बार फिर लड़के को उसके परिवार सहित बुलाया गया। दोनों के परिवारों ने आपस में बातचीत की। लड़का उन्हीं की बिरादरी का था। बात बन गई और दोनों की शादी हो गई। लड़के ने दहेज के रुप में काव्या के पिता से कुछ भी नहीं लिया और शादी कर उसे लेकर दिल्ली चला गया।

 काव्या के पिता की जमीन बिकने से बच गई।  उसके घरवालों की गरीबी तो नहीं दूर हुई लेकिन उनके घर में जीने खाने का सामान तो है ही। काव्या के भाई के बच्चों को कम से कम स्कूल जाकर पढ़ने का अवसर मिला है। इस तरह काव्या के पिता की फिक्र दूर हुई।


जिंदगी में छत्तीस तरह की परेशानियां होती हैं लेकिन किसी भी काम पर बट्टा नहीं लगता। देर-सबेर भटकते ही सही कोई ना कोई रास्ता मिल ही जाता है। जीवन में आने वाली समस्याएं अपने साथ एक रास्ता लिए ना आतीं तो इंसान निराशा के अलावा किसी औऱ चीज की बातें ही ना करता। समस्याएं औऱ सॉल्यूशन दोनों आसपास ही होते हैं लेकिन हां सब्र उनसे कोसों दूर होता है।

रविवार, 25 मई 2014

क्योंकि हम सबकुछ नहीं बदल सकते!




मुहल्ले के अंतिम छोर पर रहने वाली एक आंटी आजकल बेहद परेशान चल रही हैं। पास-पड़ोस के लोगों एवं रिश्तेदारों ने उन्हें तंग कर रखा है। दरअसल आंटी का बेटा नितिन 27 साल का हो गया है और अभी तक उसकी नौकरी नहीं लग पाई। नितिन दूसरे शहर रहकर पढ़ाई करता है, घर वालों से पैसे लेता है।
 
एक वक्त घर वालों को लगा कि अब लड़के को कुछ करना चाहिए। लेकिन उन्हें नितिन की मेहनत और संघर्ष को देखकर पूरा भरोसा है कि एक दिन वह अच्छी नौकरी का हकदार होगा। तब तक बेटे को परेशान ना किया जाए नहीं तो उसपर गलत असर पड़ेगा।

आंटी जब भी दो-चार औऱतों के बीच उठती बैठती है तो कोई ना कोई यह पूछ ही लेता है कि अरे उम्र हो गई है बेटे की, कब नौकरी करेगा, कब शादी होगी। कहीं ऐसा तो नहीं किसी लड़की से शादी करले और तुम लोगों को पता भी ना चले। आंटी चाहते हुए भी इन औरतों की बातों को स्मार्टली हैंडल नहीं कर पाती हैं और घर आकर अंकल के आगे रोने लगती हैं कि उनके बेटे को लोग ऐसे-ऐसे कह रहे हैं जैसे नौकरी ना मिलना इज्जत गंवा देने के बराबर हो। निजी जीवन में इस तरह की ताकझांक आंटी को बिल्कुल नहीं पसंद है ना ही वो दूसरों के ऐसे मामलों पर कभी टिप्पणी करती हैं फिर भी अगर उन्हें कोई ऐसी बातें कहता है तो जल्दी ही परेशान हो जाती हैं।
देखा जाए तो यह एक छोटी सी बात है। हर घरों में होता है ऐसा। बच्चे को नौकरी नहीं मिलती। और मां-बाप परेशान रहते हैं। लेकिन आसपास के लोग एवं रिश्तेदार इस परेशानी को पर्वत की तरह बढ़ा देते हैं कि ना चाहते हुए भी इंसान बच्चे को कोसना शुरू कर दे।

पाओलो कोएलो ने अपनी किताब अल्केमिस्ट में लिखा है कि लोगों को अपने बारे में भले ही कुछ ना पता हो लेकिन उन्हें ये जरूर पता होता है कि दूसरों को अपनी जिंदगी कैसे जीना चाहिए।
 हमारे जीवन में समाज में मौजूद ऐसे लोगों की संख्या ज्यादा है जिनकी ताकझांक की आदत से हमें दिक्कतों का सामना करना पड़ता है लेकिन हम कुछ नहीं कर सकते। संसार ऐसे ही लोगों से भरा पड़ा है। हमें ऐसों के बीच ही उठना-बैठना, खाना-पीना, सुख-दुख मनाना, औऱ सांस लेना है। और लोगों को अपने ऊपर हावी होने दिए बिना ही उनके  बातों का उदाहरण सहित जवाब देना ढूढ़ना होगा। क्यों कि जीना तो हमें ऐसे ही लोगों और समाज के बीच है।                                    

मंगलवार, 20 मई 2014

हायो रब्बा!!




कल बरामदे में बैठकर दो जन बातें कर रहे थे। एक जन ने कहा जानते हो आजकल औरतें भी देश-दुनिया की खबरों से अपडेट रहने लगी हैं। दूसरे जन ने मजाक भरे लहजे में कहा कि क्यों तुम औरतों के प्राइम टाइम में बैठे थे क्या। पहले जन बोले-नहीं यार..कल एक मित्र के घर गया था वे घर पर नहीं मिले उनकी पत्नी से मैंने पूछा कब तक वापस आएंगे तो वे बोलीं कि वो मलेशियाई विमान ढ़ूढ़ने निकले हैं। फिर इसके आगे मेरा कुछ बोलने का सवाल ही नहीं उठा।

मेरी पत्नी की सहेली एक दिन मेरे घर आयी। मेरा बेटा मेहमानों से इतना शर्माता है कि उन्हें नमस्ते तक नहीं करता। बच्चे को कुछ न बोलते देख पत्नी की सहेली ने कहा-तेरा बेटा तो बड़ा ब्रिलिएन्ट है रे। पत्नी बोली-कैसे। तो उसकी सहेली ने कहा इतना मौन रहता है जरूर 17वीं लोकसभा जीत कर मनमोहन बनेगा। पत्नी पहले नहीं समझी बाद में हंसने लगी।

दो-चार औरतें बैठकर किसी के बारे में बातें कर रही थीं कि अरे उसका भाई तो एकदम्मे दिग्विजय सिंह जैसा निकला। बताओ भला प्यार का नशा ऐसा चर्राया था कि ना उम्र का लिहाज ना समाज का। कहता है वियाह करेगा तो उसी से। देखते हैं कोई क्या कर लेगा।

मम्मियां भी आजकल देश-दुनिया को लेकर सजग हैं। बच्चों के लिए इस बार घर में मोदी की फोटो छपी टी शर्ट्स उन्हीं की पसंद से आयी। पहले तो झाड़ू इतने जल्दी खराब हो जाते थे कि घर बुहारने के बाद एक बार झाड़ू बुहारना पड़ता था लेकिन श्री मती जी आजकल झाड़ू की कीमत समझ गयी हैं। ऐसे संभालकर रखती हैं जैसे कांच का कोई बर्तन। ये लहर थी भईया।

रविवार, 18 मई 2014

पंगु को पंगु बना दिया



एक कामकाजी मां-बाप का बेटा अर्पित बचपन से ही विकलांग था। लेकिन तेज बुद्धि का, हंसमुख एवं होशियार था। अपना बायां पैर जमीन पर ठीक से नहीं रख पाता था उसके पैर की एड़ी उठी रहती थी और दाएं हाथ की हथेली पूरी फैलती नहीं थी बाकी उसके सारे अंग ठीक से काम करते थे। एक हाथ एवं पैर से विकलांग होने पर उसे सिर्फ इतनी दिक्कतें आती थीं कि वह अपने दाएं हाथ की पूरी हथेली खोले बिना ही किसी सामान को पकड़ने की कोशिश करता था। मां-बाप को उसकी इतनी फिक्र थी कि उसे कभी स्कूल बस से स्कूल जाने का मौका नहीं दिया गया उसके लिए घर से ही एक अलग गाड़ी व ड्राइवर की व्यवस्था की गई। वह स्कूल जरुर जाता था लेकिन अपने सहपाठियों से कम बातें करता था। कालोनी के बच्चों को देखकर उसका भी मन होता था साइकिल सीखने का लेकिन उसके मां-बाप ने कहा इसकी क्या जरुरत है गिर जाओगे चोट लग जाएगी। मां-बाप उसे उसके मन का कोई काम नहीं करने दिए। यहां तक कि ग्रेजुएशन की पढ़ाई भी घर बैठे हुई। इस तरह अर्पित न तो साइकिल चलाना सीख पाया ना अकेले कहीं आ जा पाया और ना ही दोस्त बना पाया। घर में बैठाकर उसके मां-बाप ने उसे दुनिया दिखायी।

पांच साल पहले अर्पित की शादी हुई। आज उसकी चार साल की एक बेटी भी है। शादी से पहले उसके मां-बाप उसकी विकलांगता की वजह से कहीं जाने नहीं दिए ताकि उसे कोई परेशानी ना हो। शादी के बाद से अब तक अर्पित अपनी बीवी को कहीं भी घुमाने के लिए नहीं ले गया ना ही किसी शॉपिंग या खाने पीने या मौज मस्ती के लिए बाहर ले गया। उसकी बीवी समझदार है और इन बातों को लेकर कभी कोई जिद नहीं की। अर्पित की बीवी एवं बेटी के लिए हर एक सामान की खरीददारी उसकी मां करती हैं। अब अर्पित की बेटी का एडमिशन कालोनी के पास ही एक स्कूल में करा दिया गया है। बाकी बच्चों की तरह वह भी जिद करती है कि वह पापा की उंगली पकड़कर उछलते हुए स्कूल  जाएगी लेकिन उसके पापा को यह पसंद नहीं। उस नन्ही गुड़िया को उसके दादा स्कूल छोड़ने जाते हैं। इस तरह मां-बाप ने अपने बेटे को विकलांगता के चलते घर से बाहर नहीं निकलने दिया उसका हश्र यह हुआ कि अर्पित को घर के अलावा कोई जगह अच्छी नहीं लगती। वह अपने ससुराल वालों के सामने आने से भी कतराता है।

कभी-कभी मां-बाप बच्चों की सुख सुविधाओं का खयाल इस कदर रखते हैं कि वह आगे बच्चों के लिए परेशानी का सबब बन जाता है। अर्पित विकलांग जरूर था लेकिन सिर्फ इतना कि वह अपना पैर जमीन पर ठीक से नहीं रख पाता था, हाथ की हथेली फैला नहीं सकता था। लेकिन ये समस्या उसके किसी भी काम में बाधा नहीं बनी। बाधा बने तो उसके मां-बाप। उन्हें डर था कि कहीं बच्चे को अकेले भेजने पर कोई परेशानी ना हो। साइकिल से गिरने पर उसे चोट ना लग जाए, खेलते वक्त कोई बच्चा उसे मार न दे। इन्हीं सब बातों का वहम पाले अर्पित के माता-पिता ने उसको किसी भी चीज की आजादी नहीं दी। और उस पंगु को इस तरह पंगु बना दिया कि वह घर की दहलीज से आगे नहीं बढ़ पाया। अब अर्पित के बेटी को भले ही पिता का प्यार मिलता रहे लेकिन घर-बाहर की परेशानियों से लड़ने के लिए उस गुड़िया को किसी भी तरह का सहयोग नहीं मिलेगा।