सोमवार, 30 सितंबर 2013

मूड ही तो है....


एक काम के सिलसिले में काफी भागदौड़ औऱ थकान के बाद एक पेड़ की छाया में बैठी थी। थकान से दिल और दिमाग दोनो सुन्न पड़ गया था। तभी घर से मां का फोन आया। फोन उठाते ही उन्होंने किसी बात को लेकर मुझे डांटना शुरु कर दिया। मुझे बहुत बुरा लगा और मैने बीच में ही फोन काट दिया। मूड औऱ ज्यादा खराब हो गया था जिसके चलते शाम को कोई काम नही कर पायी।
 बाद में दीदी को फोन करके कहा कि मां को कह दें कि कभी भी कुछ भी ना बोल दिया करें। इंसान कहां होता है, किस काम में फंसा होता हैं, ना जाने किस मूड में होता है। लेकिन फोन करने वाला किसी भी समय कुछ भी सुना कर खाली हो जाता है, चाहे सुनने वाले का मूड कैसा भी क्यों न हो। दीदी ने कहा-अरे मां की बातों का क्या बुरा मानना उनको तो बस अपनी बात कहनी होती है। उन्हे इस बात का अंदाजा थोड़े ही रहता है कि तुम उस समय कुछ काम कर रही होगी या उनकी बातों का बुरा मान जाओगी।
सिविल सेवा में चयनित एक महिला ने अपने इंटरव्यू में बताया कि उसके जीवन का सबसे कमजोर पहलू उसका मूड है । मूड के चलते कभी-कभी काम समय पर नहीं हो पाता जिससे नकारात्मक भावना मन में आती है।
देखा जाय तो चीजों का अच्छा या बुरा लगना मूड पर ही निर्भर करता है। अच्छे मूड मे कभी-कभी खराब चीजों से भी मन नही उखड़ता तो कभी खराब मूड में अच्छी चीजें भी बुरी लगती है।
हम पर पापा को प्यार कब आता है, मां को गुस्सा कब आता है, भाई को शैतानियां कब सूझती हैं औऱ हमे यह सब कब अच्छा लगता है .यह सब बातें मूड पर निर्भर करती हैं।
  कभी-कभी मूड ना होने पर भी कुछ चीजों को करना पड़ता है, मन ना होने पर भी ना तो ऑफिस छोड़ी जा सकती है ना ही क्लास। आए दिन ऐसा मन होता है कि आज ऑफिस ना जाएं लेकिन बार-बार ऐसा नहीं कर सकते।
हमारी दिनचर्या ही हमारे अच्छे या खराब मूड पर निर्भर होती है। मूड नही किया तो व्यायाम नही किया, ज्यादा सो लिया, सुबह के कुछ काम को शाम के लिए छोड़ दिया। इससे दिन भर कुछ भारी-भारी सा लगता है। अच्छे मूड के लिए जरुरी है ज्यादा से ज्यादा खुश रहना, अपना हुनर दूसरों को सीखाना तथा प्रकृति की चीजों से लगाव होना औऱ अपने जीवन तथा काम से संतुष्ट रहना। फिर चाहे परिस्थितियां कैसी भी हों, मूड कैसा भी हो, बेवक्त कही जाने वाली बातों का भी आप पर नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ेगा।

शनिवार, 28 सितंबर 2013

एक मुगलसरायी....


मुगलसराय बस स्टैंड पर एक रोडवेज में बैठी थी। सिर पर सामान लादे एक कूली आया औऱ सामान बस में पटक कर नीचे उतर गया। जिस आदमी का सामान था वह सामने की दुकान पर कुछ खरीद रहा था। कुली वहीं बस के नीचे खड़ा था।
आदमी हाथ में पेप्सी की दो बोतल लिए हुए बस के पास आया। उसका चेहरा एकदम लाल था  उसने कुली को सौ का एक नोट दिया औऱ छुट्टे मांगने लगा। कुली ना जाने क्या बुदबुदाया और नोट लेकर चला गया।
आदमी ने पेप्सी की बोतल खोली और हथेली पर लेकर अपने चेहरे को धुला फिर बोतल सहित ही पेप्सी को चेहरे पर गिराया, जोर से हांफते हुए बोतल फेंका औऱ दूसरी बोतल लेकर बस में बैठ गया। उसने दूसरी बोतल खोली एक ही सांस में आधी पेप्सी गटक डाली औऱ फिर जोर-जोर से रोने लगा।
अगल-बगल बैठे यात्रियों के बिल्कुल भी समझ में नहीं आया कि आदमी पेप्सी पीने के बाद अचानक इतनी जोर से क्यों रोने लगा। सारी यात्रियों ने देखा लेकिन किसी ने न तो कुछ बोला ना ही कुछ पूछा।
बगल की सीट पर दो बूढ़ी औरतें अपनी गठरी लेकर बैठी थी, उनमें से एक ने आदमी को रोते हुए देखकर कहा- बेटा, अब जाने वाले को कौन रोक सकता है.. यह शरीर तो किराए का एक कमरा है जब आदेश आएगा तभी छोड़ना पड़ेगा, यह दुनिया की रीति है, जो  इस संसार में आया है उसको जाना ही पड़ेगा, इसमें दिल छोटा करने की कोई बात नहीं है, अरे तु्म्ही ऐसे हिम्मत हार जाओगे तो घर वालों को संबल कौन देगा।
दूसरी बूढ़ी औऱत बोली-अब हमें ही देख लो, पिछले ही साल मेरे मनसेधु अचानक गुजर गए, जबकि उनको हुआ कुछ नही था। अच्छे से खाना-पीना खाकर रात में सोए तो किसी को क्या पता था कि कभी उठबे नहीं करेंगे, लोग उनकी ऐसी मौत पर खुश हुए लेकिन मेरे दिल पर क्या बीती ये किसी को बताने से समझ में नहीं आने वाली।
तो बेटा यही संसार की रीति है, आज हम जाएंगे तो कल तुम जाओगे । सबको एक ना एक दिन जाना है। मर्द होकर तुम इतना रोओगे तो बाकी लोगों का क्या होगा आंय।
आदमी को  शायद यह गीता प्रवचन बिल्कुल अच्छा नहीं लगा और उसने रोते हुए कहा-बस करो माताओं प्लीज..वो बात नहीं है हमारे घर में कोई मरा-वरा नहीं है।
दोनों बूढ़ी औरते झेंप गयीं और एक साथ बोली-तो फिर क्या बात है?
आदमी बोला-मैं बंबई में रहता हूं। तीन साल बाद कमाकर घर आ रहा था। पिताजी को बोला था कि इस बार घर में तीन पक्के कमरे बनवाकर ही वापस जाऊंगा।
मुगलसराय स्टेशन पर उतरा तो सोचा गांव में एटीएम होता नहीं है यहीं से पैसे निकालता चलूं। कल सीमेंट-बालू मंगवाने का ऑर्डर देना था। एटीएम से पैसे निकालकर जेब में रख लिया था, भीड़ से निकलते वक्त ना जाने कब जेब कट गयी पता ही नहीं चला। मेरी पूरी कमाई चली गयी अब घर वालों को क्या जवाब दूंगा, पिताजी को क्या कहूंगा।
बूढ़ी औऱत बोली- अरे बेटा तुम्हारी जान तो बच गई ना रुपया-पैसा तो आता जाता रहेगा। आजकल के चोर उचक्के ऐसे होते हैं कि जान औऱ माल दोनो लेते है।
आदमी को बूढ़ी औऱतों की बात से बिल्कुल संतोष नहीं हुआ, बोला- कई बार नकद पैसे लेकर आया हूं बिल्कुल अकेले, लेकिन कभी ऐसा नहीं हुआ। जीवन में आज पहली बार ऐसा हुआ कि मेरे जीवन की आधी कमाई चली गयी।
बूढ़ी औरत ने कहा-यह मुगलसराय है, देश भर के लोग यहीं आकर लूटे जाते है..एक बात गांठ बांध लो, सौ चाईं एक मुगलसरायीं।

बुधवार, 4 सितंबर 2013

यदि गुरु ऐसे होते हैं तो ना होना बेहतर....


(ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की आत्मकथा “जूठन” का अंश)

चौथी कक्षा में थे। हेडमास्टर बिशम्बर सिंह की जगह कलीराम आ गए थे। उनके साथ एक औऱ मास्टर आए थे। उनके आते ही हम तीनों के बहुत बुरे दिन आ गए थे। बात बेबात पर पिटाई हो जाती थी। राम सिंह तो कभी-कभी बच भी जाता था, लेकिन सुक्खन सिंह और मेरी पिटाई तो आम बात थी। मैं वैसे भी काफी कमजोर औऱ दुबला-पतला था उन दिनों।
सुक्खन के पेट पर पसलियों के ठीक ऊपर एक फोड़ा हो गया था, जिससे हर वक्त पीप बहती रहती थी। कक्षा में वह अपनी कमीज ऊपर की तरफ मोड़कर रखता था, ताकि फोड़ा खुला रहे। एक तो कमीज पर पीप लगने का डर था, दूसरे मास्टर की पिटाई के समय फोड़े को बचाया जा सकता था।
एक दिन मास्टर ने सुक्खन सिंह को पीटते समय उस फोड़े पर ही एक घूंसा जड़ दिया। सुक्खन की दर्दनाक चीख निकली। फोड़ा फूट गया था। उसे तड़पता देखकर मुझे भी रोना आ गया था। मास्टर हम लोगों को रोता देखकर लगातार गालियां बक रहा था। ऐसी गालियां जिन्हें यदि शब्दबद्ध कर दूं तो हिंदी की अभिजात्यता पर धब्बा लग जाएगा। क्योंकि मेरी एक कहानी “बैल की खाल” में एक पात्र के मुंह से गाली दिलवा देने पर हिंदी के कई बड़े लेखकों ने नाक-भौं सिकोड़ी थी। संयोग से गाली देनेवाला पात्र ब्राह्मण था। ब्राह्मण यानी ब्रह्रा का ज्ञाता और गाली….।
अध्यापकों का आदर्श रुप जो मैनें देखा वह अभी तक मेरी स्मृति से मिटा नहीं है। जब भी कोई आदर्श गुरु की बात करता है तो मुझे वे तमाम शिक्षक याद आ जाते हैं जो मां-बहन की गालियां देते थे। सुंदर लड़कों के गाल सहलाते थे औऱ उन्हें अपने घर बुलाकर उनसे वाहियातपन करते थे।
एक रोज हेडमास्टर कलीराम ने अपने कमरे में बुलाकर पूछा, “क्या नाम हे बे तेरा?”
“ओमप्रकाश,” मैंनेडरते-डरते धीमे स्वर में अपना नाम बताया।
हेडमास्टर को देखते ही बच्चे सहम जाते थे। पूरे स्कूल में उनकी दहशत थी।
“चूहड़े का है?” हेडमास्टर का दूसरा सवाल उछला।
“जी।”
“ठीक है…वह जो सामने शीशम का पेड़ खड़ा है, उस पर चढ़ जा औऱ टहनियां तोड़के झाड़ू बणा ले। पत्तों वाली झाड़ू बणाना। औऱ पूरे स्कूल कू ऐसा चमका दे जैसा सीसा। तेरा तो यो खानदानी काम हे। जा….फटाफट लग जा काम पे।“
हेडमास्टर के आदेश पर मैने स्कूल के कमरे, बरामदे साफ कर दिए। तभी वे खुद चलकर आए औऱ बोले, “इसके बाद मैदान भी साफ कर दे।“
लंबा-चौड़ा मैदान मेरे वजूद से कई गुना बड़ा था, जिसे साफ करने से मेरी कमर दर्द करने लगी थी। धूल से चेहरा, सिर अंट गया था। मुंह के भीतर धूल घुस गई थी। मेरी कक्षा में बाकी बच्चे पढ़ रहे थे औऱ मैं झाड़ू लगा रहा था। हेडमास्टर अपने कमरे में बैठे थे लेकिन निगाह मुझ पर टिकी थी। पानी पीने तक की इजाजत नहीं थी । पूरा दिन मैं झाड़ू लगाता रहा। तमाम अनुभवों के बीच कभी इतना काम नहीं किया था। वैसे भी घर में भाइयों का मैं लाड़ला था।
दूसरे दिन स्कूल पहुंचा। जाते ही हेडमास्टर ने फिर झाड़ू के काम पर लगा दिया। पूरे दिन झाड़ू देता रहा। मन में एक तसल्ली थी कि कल से कक्षा में बैठ जाऊंगा।
तीसरे दिन मैं कक्षा में जाकर चुपचाप बैठ गया। थोड़ी देर बाद उनकी दहाड़ सुनाई पड़ी, “अबे, ओ चूहड़े के, मादरचोद कहां घुस गया…अपनी मां ..…”
उनकी दहाड़ सुनकर मैं थर-थर कांपने लगा था। एक त्यागी लड़के ने चिल्लाकर कहा, “मास्साब, वो बैट्ठा है कोणे में।“
हेडमास्टर ने लपककर मेरी गर्दन दबोच ली थी। उनकी उंगलियों का दबाव मेरी गर्दन पर बढ़ रहा था। जैसे कोई भेड़िया बकरी के बच्चे को दबोचकर उठा लेता है। कक्षा से बाहर खींचकर उसने मुझे बरामदे में ला पटका। चीखकर बोले, “जा लगा पूरे मैदान में झाड़ू…नहीं तो उसमें मिर्ची डालके स्कूल से बाहर काढ़ (निकाल) दूंगा।“
भयभीत होकर मैंने तीन दिन पुरानी वही शीशम की झाड़ू उठा ली। मेरी तरह ही उसके पत्ते सूखकर झरने लगे थे। सिर्फ बची थीं पतली-पतली टहनियां। मेरी आंखों से आंसू बहने लगे थे। रोते-रोते मैदान में झाड़ू लगाने लगा। स्कूल के कमरों की खिड़की, दरवाजों से मास्टरों औऱ लड़कों की आंखें छिपकर तमाशा देख रही थीं। मेरा रोम-रोम यातना की गहरी खाई मे लगातार गिर रहा था।
मेरे पिताजी अचानक स्कूल के पास से गुजरे। मुझे स्कूल के मैदान में झाड़ू लगाता देखकर ठिठक गए। बाहर से ही आवाज देकर बोले,” मुंशी जी, यो क्या कर रा है? वे प्यार से मुझे मुंशी जी ही कहा करते थे। उन्हें देखकर मैं फफक पड़ा। वे स्कूल के मैदान में मेरे पास आ गए। मुझे रोता देखकर बोले, “मुशी जी..…रोते क्यों हो? ठीक से बोल क्या हुआ है?”
मेरी हिचकियां बंध गई थी। हिचक-हिचककर पूरी बात पिताजी को बता दी कि तीन दिन से रोज झाड़ू लगवा रहे हैं। कक्षा में पढ़ने भी नहीं देते।
पिताजी नें मेरे हाथ से झाड़ू छीनकर दूर फेंक दी। उनकी आंखों में आग की गर्मी उतर आई थी। हमेशा दूसरों के सामने तीर-कमान बने रहने वाले पिताजी की लंबी-लंबी घनी मूछें गुस्से में फड़फड़ाने लगी थीं। चीखने लगे, कौण–सा मास्टर है वो द्रोणाचार्य की औलाद, जो मरे लड़के से झाड़ू लगवावे है…..”
पिताजी की आवाज पूरे स्कूल में गूंज गई थी, जिसे सुनकर हेडमास्टर के साथ सभी मास्टर बाहर आ गए थे। कलीराम हेडमास्टर ने गाली देकर मेरे पिताजी को धमकाया। लेकिन पिताजी पर धमकी का कोई असर नहीं हुआ। उस रोज जिस साहस औऱ हौसले से पिताजी ने हेडमासटर का सामना किया, मैं उसे कभी भूल नहीं पाया। कई तरह की कमजोरियां थीं, पिताजी में लेकिन मेरे भविष्य को जो मोड़ उस रोज उन्होंने दिया, उसका प्रभाव मेरी शख्सियत पर पड़ा।
हेडमास्टर ने तेज आवाज में कहा था, “ले जा इसे यहां से…..चूहड़ा होके पढ़ाने चला है…जा चला जा….नहीं तो हाड़-गोड़ तुड़वा दूंगा।“
पिताजी ने मेरा हाथ पकड़ा औऱ लेकर घर की तरफ चल दिए। जाते-जाते हेडमास्टर को सुनाकर बोले, “मास्टर हो…इसलिए जा रहा हूं ….पर इतना याद रखिए मास्टर…यो चूहड़े का यहीं पढ़ेगा…इसी मदरसे में। औऱ यो ही नहीं, इसके बाद औऱ भी आवेंगे पढ़ने कू।“


वाह रे सुमित्रा....


टमाटर और बैगन तो तुम्हारे घर में भी था सुमित्रा, फिर बड़ी भाभी पर तुमने मुंह क्यों फुलाया कि उन्होने तुम्हे कटोरी में भरकर चोखा नहीं दिया। जब हम लोग उनसे अलग रह रहे हैं तो वो हर वक्त क्यों अपनी बनायी चीजें हमारे घर भेंजती रहें?

तुम हाथ पैर चलाने की जहमत उठाती सुमित्रा तो हमारे भी घर के सारे काम समय पर होते। लेकिन तुम्हे तो टीवी सीरियल्स देखने से फुर्सत ही कहां है। सालों पहले एकता कपूर नें तुमको बिगाड़ा औऱ अब जिसके बनाए सीरियल्स तुम देखती हो मुझे तो उनके नाम भी नहीं मालूम और शायद तुम्हें भी नहीं। 

तुमने एक दिन “एकता डायन” (एक थी डायन) दिखाने का फ़रमान ज़ारी किया, मैनें सोचा चलो तुम्हें एकता की बनायीं फिल्में ही दिखा लाता हूं, लेकिन ये तो जेब पर भारी पड़ेगा न सुमित्रा क्योंकि उसकी फिल्में तो अब आती ही रहेंगी, तुम टीवी पर आने का इंतजार करो। मुझे यह ना पता था उसके बनाए सीरियल्स की तरह तुम उसके फिल्मों की भी दीवानी हो जाओगी।

रात में तुम कलर्स पर ‘बालिका’ वधू देखती हो, जी टीवी पर ‘सपने सुहाने..’ देखती हो स्टार प्लस पर ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ देखती हो, और बाकी के छूटे हुए सीरियल्स दिन भर चैनल बदल-बदल कर देखती हो। तुम्हारे इस देखा देखी के चक्कर में एक दिन जब मैं ऑफिस से दोपहर लंच करने घर आया औऱ काफी देर तक डोर बेल बजाने के बाद भी तुमने दरवाजा न खोला तो मैं किसी तरह बालकनी के सहारे घर में घुसा। चूंकि तुम्हारे साथ कोई हादसा नहीं हुआ था लेकिन उस वक्त मुझे यह जानकर गहरा सदमा लगा कि अब तुम्हें कान फोड़ने वाली आवाज भी मद्धिम सुनायी देने लगी है। अगले दिन मैने अपनी जेब की तरफ ताकते हुए तुम्हारे कानों में सुनने वाली मशीन लगवायी ताकि तुम सास बहू के झगड़े के साथ मेरी भी आवाज सुन सको।

तुम एक ही दिन पसेरी भर आटा गूथ कर प्लास्टिक के डिब्बे में ढ़ूंस कर फ्रिज में रख देती हो और जब मैं लंच करने आता हूं तो तुम टीवी पर औरतों की नौटंकी देखते हुए जल्दी-जल्दी दो रोटी बनाकर मेरी थाली में फेंक देती हो, मैं भी जल्दी जल्दी लीलता हूं और फिर ऑफिस भाग जाता हूं।
तुम्हें घर के काम करने में आसानी हो इसलिए मैं सब्जी काटने की मशीन लाया, फिर गोभी और आलू के पराठे बनाने औऱ सेंकने की मशीन लेकर आया। ताजे गूथे आटे की रोटियां खाने के लिए आटा गूंथने की मशीन लाया, सलाद काटने की मशीन लाया लेकिन सुमित्रा मशीनों को तुम छूओगी तभी तो उसमें जान आएगी। इतने से काम नहीं बना तो तु्म्हारी फ़रमाइश पर मैं इंडक्शन भी ले आया जब कि हर महिने गैस सिलेंडर आसानी से उपलब्ध हो जाता था।

 तुम्हें आराम देने के चक्कर में घर में खाना बनाने के प्रयोग आने वाली इतनी मशीनें इकट्ठा हो गयी हैं कि एक एक को बेचना शुरु करुं तो महिने का खर्चा निकल आए। लेकिन मजबूर हूं सुमित्रा।

तुम सुबह सुबह ही टीवी खोल के बैठ जाती हूं, ऑफिस जाने के लिए तैयार होते वक्त पूछता हूं मेरी रुमाल कहां गायब कर दी तुमने..तब एक भी हर्फ़ खर्च किए बिना तुम उंगली से इशारा करती हो, रुमाल ना मिलने पर एक बार मैं दोबारा पूछने की गलती कर गया, इतने में टीवी पर अक्षरा की सास उसको कुछ कह गयी, तुम्हारा ध्यान भटक गया और तुम मेरा बुद्धि लब्धि परीक्षण लेने लगी कि बताओ अभी अक्षरा की सास ने क्या कहा? जो हम दोनो ही नहीं सुन पाए थे उस रुमाल के चक्कर में।
तुम जिस भाषा में कहो उस भाषा में बोल कर मैं तुमसे विनती करता हूं कि टीवी देखने औऱ सोने से फुर्सत मिले तो कुछ हाथ पैर भी हिला-डुला लिया करो सुमित्रा…तुम ऐसी मेहरबानी करोगी तो हमारे घर भी चोखा बनेगा सुमित्रा।

रविवार, 1 सितंबर 2013

एक गांव का चिंतित ग्राम प्रधान....


मुझे अच्छी तरह याद है तीन-चार साल पहले वे अख़बार के पन्ने में आंख गड़ाए कहा करते थे, लूट  थे, रिश्ते में हमारे भईया लगते थे और हमारे पडोस में उनका घर था।
 हमारे घर आकर घण्टों कुर्सी तोड़ते औऱ घर के सारे पढ़ने लिखने वाले बच्चों को ऊबाउ ज्ञान देते जिसे सुनना हम सबकी मजबूरी होती थी।
गांव के प्रधानी के चुनाव में में दो बार हाथ-पैर मारे थे औऱ शिकस्त खाकर गिरे भी थे, लेकिन ये हौसला कैसे रुके की तर्ज पर अगला चुनाव लड़ने की तैयारी पर थे। प्रधानी के चुनाव मे जिस आदमी से इनका मुकाबला होता था उसने पच्चीस सालों से प्रधानी की कमान किसी औऱ के हाथों में न आने दी थी। उसके पिताजी दो बार प्रधान रहे, माता जी एक बार, पत्नी जी एक बार औऱ वो खुद एक बार।
लेकिन उस साल किस्मत ने भईया जी का साथ दिया औऱ पच्चीस सालों से जीतते आए उश परिवार  औंधे मुंह गिराते हुए वो प्रधानी का चुनाव जीत गए ( जिनका कि अब प्रधानी का अंतिम साल चल रहा है)। प्रधानी का चुनाव जीतते ही जाति बिरादरी में या हो सकता है पूरे गांव में खुशी की लहर दौड़ गयी। एक ऐसी खुशी कि जिनमें गांव के सातवीं-आठवी के बच्चे भी बैड बाजा पर दारु पीकर बनियान फाड़ू नाच नाचे थे और बच्चों के पिताजी ने इस पर चूं तक न की थी।
जहां मनुष्यों में खुशी की लहर दौड़ गई थी वहीं जानवरों की शामत आ गई थी। खुशी के इस मौके पर बकरों की बलि दी गयी तो कुछ अन्य जानवरों का पूंछ औऱ कान काट कर काली मईया के नाम पर छोडा गया। नए प्रधान जी बैड बाजे के साथ गांव के एक एक घर में जाकर बड़ों का पैर छूकर अपने सिर पर हाथ रखवाया जिसके वीडियो रिकार्डिंग की सीडी कैसेट लोग एक दूसरे से मांग कर महिनों तक देखते रहे।
वोट मांगते वक्त गांव वालों से जो वादे किए गए थे, अब उसे निभाने की बारी थी। शुरुआत कुछ ऐसे हुई कि प्रधान ने प्रधानी के पैसे से सर्वप्रथम रामनगर में अपने लिए ज़मीन खरीदी। प्रधान के एक दो खास आदमी के अलावा इस बात की भनक गांव के किसी व्यक्ति को न लगी।
एक सुबह गली मे भीड़ लगी रही, पता चला प्रधान जी गली के खड़ंजे को उखडवाकर पक्की गलियां औऱ पानी के निकास के लिए भी कुछ आधुनिक ढंग से नालियां बनवाने जा रहे हैं ।गली में बिझे ईटों को उखाड़ दिया गया। गांव के लोग खुश थे कि सही प्रधान चुना है हमलोगों ने, बहुत जल्दी ही गांव के विकास का काम शुरु हो गया। गली बनाने के काम में लगे मजदूर निपिर-निपिर करते रहे, इस वजह से कि उनको समय पर मजदूरी नहीं मिलती। इसी बीच प्रधान ने नयी इनोवा खरीद ली।
गली बनाने का काम ऐसे चला कि बरसात का मौसम आ गया और आए दिन गली बरसात के पानी में डूब जती। अपनी प्रधानी के अब तक के काल में प्रधान ने सिर्फ गलियां बनवायी है वो भी लोगों की गालियां खा- खाकर। अब अपनी प्रधानी के अंतिम साल में प्रधान ने हाईस्कूल में पढ़ने वाली  अपनी लड़की को स्कूटी औऱ एक मोबाइल, सातवीं में पढ़ने वाले लड़के को एक पल्सर और एक मोबाइल तथा चौथी में पढ़ने वाले लड़के को एक रेंजर दिलवायी है।
घर में खेती के लिए ट्रैक्टर, बच्चों के लिए कंप्यूटर, बीबी के लिए वॅाशिंग मशीन, एल सीडी टेलिविजन, ठण्डे पानी के लिए फ्रिज इत्यादि व्यवस्था की है। प्रधान की इन सब सुख-सुविधाओं को देखते हुए कुछ साल पहले चिन्तित स्वर में उन्ही की कही बात याद आती है-देश में लूट मची है, लोगों को अपनी जेब भरने से फुर्सत नहीं है।