शनिवार, 16 जुलाई 2016

चांद..आशिक और छत



छत पर आओ न, मुझे तुम्हें देखना है।
-अच्छा जी! अगर मैं तुम्हारे हॉस्टल के सामने नहीं रहता तो कैसे देखती मुझे?
वो मुझे नहीं पता, बस तुम अपनी छत पर आ जाओ।
-लो बाबा, आ गया..अब खुश !
हां..बहुत खुश..आसमान में उस चांद को देखो..कितना प्यारा लग रहा है।
-हां..प्यारा तो लग रहा है..
नहीं..ऐसे मत देखो
-फिर कैसे
पहले चांद को देखो, फिर उसके किनारे रोशनी से बनी धुंध को देखो।
-हां..देख तो रहा हूं।
नहीं..ऐसे नहीं
-फिर कैसे?
पहले चांद को देखो..फिर उसके किनारे की धुंध को देखो..और फिर उसके बगल में जो चमकीला तारा बैठा है उसे देखो।
-अरे वाह...चांद तो वाकई प्यारा दिख रहा है।
चांद प्यारा ही नहीं बहुत प्यारा लग रहा है, लेकिन तुम इसे ऐसे मत देखो।
-फिर कैसे?
ये जो चर्च दिख रहा है न पहले इसकी मिनार देखो, फिर उसके ऊपर चांद और बगल में बैठे तारे को देखो। मिनार, चांद और तारे को एक ही फ्रेम में रखकर देखो। इसके अलावा कुछ न देखो।
देखो न..कितनी प्यारी सीनरी है ये। जैसे बचपन में हम ड्राइंग बनाया करते थे। कोई घर होता था फिर उसके ऊपर काली रात बनाते थे फिर ठीक ऐसे ही चांद और बगल में एक चमकीला तारा।
-लेकिन मुझे तो चांद के बगल में बैठा यह तारा ऐसे दिख रहा है मानों तुम्हारे गाल का तिल हो।
नहीं..तुम इसे तिल मत बनाओ..इसे ऐसे देखो जैसे बचपन में बनायी गई कोई पेंटिंग हो।
-सच.. तुम पगली हो रे।


कोई टिप्पणी नहीं: