सोमवार, 23 मार्च 2015

लड़ाई ‘लाइव’



रात का समय है। मुझे नींद नहीं आ रही है। इस समय रात के बारह बजकर तीस मिनट हो रहे हैं। मैं अपने कमरे मे बैठकर दो छिपकलियों की लड़ाई लाइव देख रही हूं। टीवी पर नहीं। ठीक मेरे आंखों के सामने दो छिपकलियां लड़े जा रही हैं...जैसे पड़ोस की शर्माइन और मिश्राइन आंटी लड़ती हैं। इन छिपकलियों की लड़ाई उनसे कमतर नहीं है। 

कल मैंने पेप्सी पीकर खाली बॉटल अपने कमरे के एक कोने में लुढका दी। और ठीक अभी-अभी की बात है..दो छिपकलियां बॉटल के ऊपर बैठने के लिए आपस में एक दूसरे से भिंड रही हैं। उस बॉटल की चौड़ाई इतनी ज्यादा है नहीं कि दोनों एक साथ बैठ सकें। शायद पहले मैं पहले मैं वाली बात को लेकर दोनों लड़ रही हैं। दीवार के ऊपर शंकर भगवान का एक कैलेंडर टंगा है। इसको ओजस आर्ट वालों ने बनाया है। देखने में ऐसा मानो भगवान शंकर छिपकली टाइप किसी चीज से ढके हों। लेकिन ये फोटो वैसी नहीं है जैसी बाजारों में मिलती है..ये फोटो ऐसी है जो बाजारों में शायद अब मिलने लगे। 

हां..तो कैलेंडर का जिक्र करने का मतलब ये था कि एक छिपकली जो कुछ अबला टाइप की है..वह थक हारकर शंकर भगवान के फोटो के पास जाकर बैठी है। जैसे यह कह रही हो कि आज तो सोमवार है...मैंने व्रत काहे लिए रखा...आपने मेरी बॉटल पर बैठने तक की मनोकामना पूरी नहीं की।
जिस समय मैं छिपकलियों के बारे में लिख रही हूं..कैलेंडर के पास बैठी छिपकली दूसरे दीवार की तरफ जा रही है। देखना यह है कि वह दीवार का भ्रमण करती है या फिर बॉटल पर बैठने की पुरजोर कोशिश करती है।

अरे ये क्या....

ये तो दीवार पर टंगे शीशे पर जाकर चिपक गई। शीशे में अपना चेहरा देख रही है क्या। वैसे कहा जाता है कि आधी रात को शीशे में अपना चेहरा नहीं देखना चाहिए। लेकिन इसको क्या फर्क पड़ने वाला..ये तो छिपकली है।
वैसे एक और बात कही जाती है.........कि नींद ना आए तो कुछ पढ़ना या लिखना चाहिए...उससे तो नींद आ ही जाती है....
अब क्या कहूं...सच में...अब तो जोर की नींद आ रही है। इन लोगों की लड़ाई भी खत्म हो गई। एक छिपकली बॉटल पर तो दूसरी शीशे पर बैठी है। और मैं...मैं अपने बेड पर बैठी तो हूं...लेकिन अब लुढकने जा रही हूं।
शुभ रात

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