सोमवार, 18 नवंबर 2013

वध के बिना गुज़ारा नहीं....






मैनें पहली बार किसी का वध होते हुए देखा था, एक मरे हुए जानवर का वध, जिसे मरने के बाद भी मारने की प्रक्रिया पूरी की जा रही थी। उस वक्त स्कूल से छुट्टी हुई थी औऱ मैं कच्चे रास्तों से होते हुए घऱ आ रही थी। उसी वक्त मैने पहली बार देखा था, एक आदमी सूखी नहर के बीचो-बीच एक भैंस को काट रहा था। घर आने पर दिमाग में सिर्फ लाल मांस का लोथड़ा ही घूम रहा था, औऱ खाना खाते वक्त मैनें कई बार उल्टियां की थी।
दूसरी बार मैने उस आदमी को तब देखा जब मेरे भैंस का बच्चा मर गया था औऱ वह उसे लेने घर आय़ा था। उसका बारह साल का लड़का दरवाजे पर ट्राली औऱ एक मोटा रस्सा लेकर खड़ा था। तब मुझे पता चला कि वह हमारे गांव का ही एक आदमी है। उसका नाम जवाहर था, दुनिया वाले उसे जवाहिर डोम बुलाते थे।
 उसकी आवाज मुझे श्री कृष्ण के कंस मामा की तरह लगती थी। मैं जब भी रामानंद सागर कृत श्री कृष्णा में कंस को देखती, मेरी आंखों के सामने जवाहिर डोम की छवि आ जाती।
मरे जानवर के चमड़े उतारने के अलावा वह छत्तीस सूअरों का मालिक था, साथ में बांस के डंडियो से बेना, सूप और टोकरी बनाकर उसे रंग-बिरंगे रंगों में रंग कर बेचता था।
मैनें देखा था जब भी वह हमारे दरवाजे पर सूप औऱ बेना लेकर आता था अपनी गठरी से निकालकर उसे फैला देता था ताकि मेरी दादी उसे अपने हाथों से खुद उठाकर देख सकें। लोग डोम को नहीं छूते थे, औऱ उससे दूर रहते थे।
जब मैनें दादी से पूछा था कि आप इन्हें छूती नहीं औऱ इनके बनाए सूप, बेना औऱ टोकरी को घर में इस्तेमाल करती हैं? तब दादी ने मुझे डांटा था जिसके पीछे का रहस्य आज तक मेरी समझ में नहीं आय़ा।

 इस दीवाली जब मैं घर गई, तब मैनें उसी जवाहिर डोम को कई वर्षों बाद देखा। जो मेरे घर के पिछवाड़े घने बांस के वृक्षों के बीच लकड़ी बीन रहा था। उस दिन दीवाली थी, गांव वाले बाजार में मिठाईयां छांट रहे थे, लेकिन ये इधर-उधर भटककर घर का चूल्हा जलाने के लिए लकड़ी का इंतजाम कर रहे थे। अब भैंस का वध नहीं करते? ऐसा पूछने पर मेरी तरफ गर्दन उठाकर देखा उन्होंने और बोले अब लोग भैंस ही कितनी रखते हैं? जो है सब खा-पीकर बरियार हैं, मरती ही नहीं हैं।
सूअरें एक के बाद एक खतम होती गईं। आंख धोखा दे रही है, सूप-बेना कहां से बनाए। किसी तरह पेट का जुगाड़ हो जाए बहुत है।

मैने अपनी ही आखों के सामने कभी उनका रौद्र रुप देखा था जब वह जानवरों को काटते थे, औऱ आज इनकी यह दुश्वारियां देख रही हूं। जिस दिन इन्हें चूल्हा फूंकने के लिए लकड़ी औऱ पकाने के लिए अन्न मिल जाए वही

सोमवार, 4 नवंबर 2013

दलिद्दर ने बहुत छकाया...



आज सुबह मैं गहरी नींद में थी, उन्होंने पास आकर मुझे हिलाया, यहां तक कि मेरे पूरे शरीर को झकझोर डाला, लेकिन मेरी नींद नही खुली। वह झल्लाकर बोलीं-अगले साल यह सब खुद करना पड़ेगा, मैं नहीं रहूंगी तब जगाने के लिए। उनकी यह बातें नींद में ही मुझे बेध गयीं औऱ मैं तुरंत उठ गई लेकिन आंखों में नींद सवार ही थी..आखिर भोर की नींद जो थी।

दिवाली की अगली सुबह हमारे य़हां घर से दलिद्दर निकालने का रिवाज है। मैं जब से अपने खुद के पैरों से चलना शुरु की हूं तब से लेकर आज तक हर दिवाली की सुबह अपने नींद की बलि देकर दलिद्दर भगाने के काम में दादी की मदद करती आयी हूं। 

बाकी सालों की तरह इस साल भी दादी के साथ मिलकर वही काम करना था।  दादी ज्यादा बिमार चल रही हैं और वह हर काम को ऐसे कर रही थी जैसे जिंदगी ने उन्हें अंतिम अवसर बख्सा हो। इसलिए उन्होंने अगली दिवाली पर अपने ना होने की बात कहकर मेरी नींद खुलवा दी।

दलिद्दर निकालने के लिए बांस की बनी एक पुरानी टोकरी ऱखी गयी थी जिसे घर के हर कमरे में हसिया से बजाते हुए ईश्वर बैठें दलिद्दर निकलें ऐसा बोलना होता था जो कि मेरा काम था। दादी मेरे पीछे तेल से भरा एक मिट्टी का दीया लेकर चल रही थीं।

मैं हाथ में बांस की पुरानी टोकरी और हसिया लेकर जम्हाई ले रही थी, बस कहीं लुढ़क जाने का मन कर रहा था। लेकिन दलिद्दर को भी तो निकालना था सूर्य उदय होने से पहले। खैर मैं अपने काम पर लग गई, लेकिन एक गलती हो गई शुरुआत में ही। घर के पहले चार कमरों में ईश्वर निकले दलिद्दर बैठें ऐसा उल्टा-पुल्टा बोल दी...दादी ने पीछे से जोर की डांट लगायी..और कहा कि फिर से शुरु करो दलिद्दर तो बैठा ही रह गया ईश्वर निकल गए..

मेरी शामत.... जहां से शुरु की थी वहीं से फिर शुरु करना पड़ा यानि पहले कमरे से ठीक ठीक ईश्वर बैठें दलिद्दर निकलें बोलते हुए टोकरी पीटना शुरु की। अभी पीछे चौदह कमरे बाकी थे।
सारे कमरों को निपटाते हुए अब उस कमरे की बारी आयी जिसमें की भैंस अपने बच्चों के साथ सो रही थी। अब तक मैं नींद से पूरी तरह बाहर आ गयी थी। जैसे ही मैं भैंस के कमरे में टोकरी पीटते हुए गई भैंस भड़क उठी और खूंटे के चारो तरफ चक्कर लगाते हुए जोर-जोर से बें बें बें करने लगी, लेकिन पीछे से दादी ने आकर उसे शांत कराया।

 अब लगभग घर के कोने-कोने से दलिद्दर निकल चुका था फिर हम खलिहान के पास नहर के किनारे जाकर उस टोकरी को रखकर और दीपक जलाकर रखे औऱ दलिद्दर को बोले-अगर कहीं से सुन रहे हो तो सुनो अगले साल ऐसे ना छकाना,आसानी से घर से निकल जाना, चाहे दादी रहें या ना रहें।

शनिवार, 2 नवंबर 2013

धूल पीसने वाली चक्की..




यह श्रेय श्रेया को जाता है कि इनका चित्र उतारने में हम सफल रहे वरना पुराने कपड़ों में फोटो खिंचाने से इन्हें गुरेज है। इनके जीवन की पिछली दो दीवाली ऐसे ही बीत गई..घर वालों ने इन्हें पटाखे नहीं दिलवाए..अबकि इनकी तीसरी दीवाली है, मुहल्ले के बच्चों ने इनके कान भर दिए कि दीवाली में किन-किन चीजों की फरमाईश करनी है...

तो शुरुआत यहां से हुई कि आज जब दीपक बांटने वाले कुम्हार घर आए तो इन्होंने मिट्टी की बनी चक्की लेने की जिद की...जब इनसे पूछा गया कि चक्की का क्या करोगी तो बोलीं- धूल पीसेगें..फिर उसे कपड़े मे चालेंगे...फिर उसे पानी मे सानकर हलुवा पूड़ी बनाएंगे और धूप में सुखाएंगे...और कल दुकान लगाकर उसे बेचेगें। बाकी पटाखे, मिठाई और कपड़ों के जुगाड़ में लोग लगे हैं इनके खातिर।

बचपन को करीब से देखना कितना प्यारा लगता है, आजकल बस मैं भी इनका मिट्टी का बना हलवा पुड़ी बेचवाने में मदद कर रही हूं।