मंगलवार, 27 अगस्त 2013

जब दादी बाइक पर बैठीं....



पिताजी को उनकी शादी में एक साइकिल औऱ रेडियो दहेज में मिला था। दादी बहुत खुश थीं। गंगा मईया को आऱ-पार का माला चढ़ाईं, और पीहर जाकर पापा की नानी को धोती पहनाई।
पिताजी की शादी से पहले घर में साइकिल नहीं थी। कहीं आने जाने के लिए बैलगाड़ी या इक्का का सहारा लिया जाता था। दादा जी लजाधुर थे औऱ दादी को अपने साथ लेकर बाहर निकलने में “जोरू का गुलाम” वाला ठप्पा लगवाने से डरते थे।
कहीं आने जाने के लिए दादी भोर में ही एक गठरीनुमा झोले में सामान रखकर घर से निकल जाती थीं..चलते-चलते जब सूर्योदय होता तो दादी बाकी की दूरी तय करने के लिए बैलगाड़ी या इक्के पर बैठ जाती थी। जब दादा जी लजाधुर प्रवृत्ति के निकले तो दादी को उनके मायके पहुंचाने का सवाल ही नहीं था। तब यह जिम्मा दादी के देवर को सौपा जाता, आधा रास्ता पैदल औऱ आधा बैलगाड़ी से चलकर दादी मायके पहुंचतीं थी।
तो…इतना कष्ट झेलने के बाद जिसके लड़के को दहेज में साइकिल मिली हो उसका खुश होना लाजमी था। दहेज में मिली साइकिल देखकर दादी को हमेशा सपने आते कि वो अपने गठरीनुमा झोले को लेकर साइकिल के पीछे की सीट पर बैठ हरे खेतों के बीच से गुजरे रास्ते और पुरुआ हवाओं को झेलते हुए  कभी अपने मायके तो कभी मेला-ठेला देखने जा रही हैं।
लेकिन दादी की सास ने उनका सपना यह कहकर पूरा नहीं होने दिया कि घर की बहू, जो सब दिन भोर में निकल कर पैदल यात्रा करी हो, वो साइकिल पर जाएगी तो लोग देखेंगे। औऱ दादा जी ने पिताजी की काबिलियत पर यह कहते हुए बट्टा लगा दिया कि कहीं गिरा-परा दिया तो लेनी की देनी पड़ जाएगी।
दादी को अपनी सास के बातों से कष्ट तो हुआ लेकिन उन्होंने ये नही कहा कि सास ने सांस लेना दूभर कर दिया है। दादी ने फिर कभी साइकिल पर बैठने की इच्छा नहीं जताई।
दादी की सास जब सकुशल भगवान के पास पहुंची तब दादी की खुद की एक उम्र हो गयी थी, जिसे दुनिया बुढ़ापे के नाम से जानती है।  उस वक्त हम भाई-बहन भी लुढ़ककर धरती पर आ गए थे, और दादी से “मछली जल की रानी है” सीख रहे थे। उससे ज्यादा खुशी की बात यह थी कि घर में बाइक आ गयी थी।
हम भाई-बहनों के बड़े होने तक घर में एक दो बार पुरानी बाइक बेंच कर नयी भी आयी। इसके साथ ही दादी अपने उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच गयीं थी जहां पैदल तो दूर ऑटो औऱ बस के ठेलम -ठेल में  सफर करने में दादी की सांसे फूलने लगती। अब तो कहीं आने जाने के लिए घर की गाड़ी बाइक पर दादी का बैठना जरुरी हो गया था।
पिताजी बाइक लेकर गली में खड़े थे, दादी घर मे चप्पल पहन रहीं थी और और अब तक चलते आ दहेज के रेडियो पर बज रहा था-मेरे दिल ने जो मांगा मिल गया, मैने जो कुछ भी चाहा मिल गया…..। दादी “दो चक्का” से अपने मायके जाने को तैयार थी, पिताजी उन्हे छोड़ने जा रहे थे।
लेकिन ये क्या…जब बैठने की बारी आयी तो दादी बाइक पर दोनो तरफ पैर लटका कर बैठी..ये कहते हुए कि कहीं गिर-पर गए तो समय से पहले ही तुम लोग पूड़ी खा लोगे। सबकोई हंसने लगा और बाइक गली से आगे निकल गई।
अब एक बार बाइक पर बैठने के बाद दादी किसी औऱत को बाइक पर बैठते हुए बड़े ध्यान से देखती औऱ इस तरह देखते हुए उन्हे यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि औऱते बाइक पर दोनो साइड पैर लटका कर नहीं बल्कि एक ही तरफ दोनो पैर करके बैठती है।
अगली बार दादी ठीक वैसे ही बैठीं, बाकी औऱतों की तरह, दोनो पैर एक तरफ लटका कर। इस बार वो भाई के साथ कहीं जा रहीं थी। जैसे ही बाइक चली दादी का चप्पल उनका साथ छोड़कर गिर गया औऱ दादी चिल्लाने लगीं मानों चलती बाईक से चप्पल उठाने के लिए वो कोई भी स्टंट करने को तैयार थी। इस घटना से प्राप्त अनुभव को उन्होंने सहेज कर रखा है।  औऱ अब बाइक पर बैठते वक्त अपने दोनों पैरों का चप्पल निकाल कर बाइक की डिग्गी में रख लेती हैं। औऱ चश्मे वाली आंख से नजारा देखते हुए मायके पहुंचती हैं।

कोई टिप्पणी नहीं: