गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013

सब्जी वाली भौजाई


किसी ठकुराईन से कम नहीं लगती है वह सब्जी वाली …वुमेन हास्टल के पास वाले चौराहे पर दिन ढलते ही ठेले पर सब्जियों को करीने से तैयार करती है..जैसे मां अपनें ब्च्चे को स्कूल भेजनें के लिए रोज तैयार करती है..
सब्जियों को सजाते वक्त उसके हाथ की लाल चूड़िया हरी हरी सब्जियों के बीच ऐसे इठलाती है मानों सावन में कोई फसल पर कर लाल पड़ गयी हो…लेकिन वह कभी ध्यान नहीं देती अपनी सुंदरता पर..वह तो सब्जियों को सजानें में व्यस्त रहती है…और हमेशा अपनें को एक सब्जी वाली ही मानती है…
शाम होते ही हास्टल की लड़कियों से घिर जाती है वह..हंसते बोलते बतियाते हुए सब्जी तौलती है…देखनें में ऐसा लगता है जैसे फागुन में कई सारी ननदों नें मिलकर भौजाई को घेर रखा हो…लेकिन कुछ तो है उसके अंदर जो लोगों को अच्छा लगता है…चाहे वह सब्जी तौलते-तौलते उसे छौंकनें की विधि बता दे..चाहे बिन मांगे  मुफ्त के हरे धनिया मिर्चा से विदाई कर दे..चाहे पैसे कम पड़नें पर कभी और लेने का हिम्मतपूर्ण  वादा करवा ले…लेकिन कुछ है उसमें… उसके सरल और आत्मीय शब्दों में जो एक अजनबी शहर में अपनें मुहल्ले की चाची भाभी की हंसी ठिठोली का आनंद दिलाती है……उमर कम होनें की वजह से लड़कियां उसे भाभी कहती हैं..लेकिन मुझे तो वह मां की तरह लगती है…जिस तरह वह हमारी सब्जियों को बांधते हुए उसमें कुछ नुख्से औऱ सलाह भी बांध देती है जो घर जानें पर कभी कभी मां सीखा कर भेजती है…
हम अपनें आस पास की बहुत सारी छोटी बड़ी चीजों या लोगों को देखते है लेकिन उनसे कुछ सीखनें या उनकी अच्छी चीजों को जीवन में उतारनें की कोशिश कभी नहीं करते…इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि हम हमेंशा अपनें से बड़े (हैसियत में) लोगों को ही सिर उठा कर देखते है…यही अब तक इंसान की फितरत रह गयी है….

एक दिन मैंने देखा कि वह सब्जी वाली अपनें ठेले के बगल में एक स्टूल पर एक बूढ़ी औरत को बैठायी थी..पूछने पर पता चला कि यह उसकी सास हैं…कुछ दिन पहले गिर गयी थीं हाथ टूट गया..घर में कोई और सदस्य न होनें के कारण कुछ दिन ठेला भी नहीं लगा..सास की सेवा के चलते..अब थोड़ा आराम मिला तो सास को भी लेते आयी कि इनकी देखभाल भी हो जाएगी औऱ सब्जी बेचकर कुछ पैसा भी निकल आयेगा…
सब्जी वाली कभी स्कूल नहीं गयी थी…लेकिन  एक एक पैसे का हिसाब सटीक रखती थी…स्टूल पर बैठी सास बहू का बखान करते हुए बोली हम बहुत गरीब हैं लेकिन ऐसी बहू पाकर हम किसी भी परिस्थिति में अपनें बुरे हालात का रोना नहीं रोए…उस बूढ़ी औरत की बाते सुनकर मुझे याद आ रही थी मध्यमवर्गीय परिवार की पढ़ी लिखी बहू..जिसके नाजुक हाथ कभी परिवार के हालात संभाल ही नहीं पाते हैं…जो सास जैसी चीज को ताख पर रख देती है…
मेरा दिल इस सब्जी बेचनें वाली को बहुत दुआएं दे रहा था…जो चूड़ियों से सजे हाथों से तराजू पकड़े सब्जी तोलनें में मस्त थी…