सोमवार, 24 दिसंबर 2012

मैं वही मादा हूं......

लड़की नहीं
एक यात्री बनकर
कहीं जाने की खातिर
धक्का मुक्की सहते हुए
बन्द हो जाती हूं मै भी
 बस के उस डिब्बे में

सीट पर बैठे पुरूष
हंसते हैं मुझपर
जब मैं हाथ ऊपर कर
कोई सहारा पकड़ खड़ी होती हूं

आता- जाता हर यात्री
मुझे धकियाते हुए
निकल जाता है..
पीछे खड़े कुछ पुरूष
मेरे पास आ जाते हैं
और भीड़ के बहाने
मेरे जिस्म को छूते हैं


कुछ निगाहों से ही
मेरा चीर हरण कर लेते हैं
कुछ चेहरे से अपनें
मुझे प्रलोभन देते  हैं

मेरा विवेक ठगा जाता है
लेकिन मैं विवश हूं
कि ना चिल्ला सकती
न लांछन लगा सकती हूं

ऐसे में
कंडक्टर की सीटियां
मेरे कानों को छेद जाती है
जैसे कोई मनचला
सीटी मार रहा हो मुझे

उस वक्त मेरे ह्रदय में
एक पीड़ा सी होती है
और
 मैं ये सोचती हूं
सच
मैं कोई यात्री नहीं
इन पुरूषों की भांति

मैं एक लड़की हूं..
मैं वही मादा हूं
जिसके पुरूष भूखे है...

4 टिप्‍पणियां:

हरीश सिंह ने कहा…

kavita ke drishti se sahi hai, par ladki hone ki itni pida nahi honi chahiye. nice

Mithilesh dubey ने कहा…

aaj ke parivesh ko dekhte huye bahut hee sarthak kavita

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

कितना कड़वा सच है!
ऐसा लगता है - घर से बाहर निकला आदमी सिर्फ़ नर रह जाता है औ हर मादा को अपना भोग्य समझ लेता है और कुछ बस न तले तो दृष्टि और चेष्टाओं से ही सही,और सभी नर तमाशा देखते है .
क्या पाता है वही जाने !

अनूप शुक्ल ने कहा…

कडुवी सचबयानी!